.
कुछ दिनों पहले अपनी पुरानी वस्तुएं निहारते हुए एक स्वरचित कविता “बाल श्रमिक” हाथ लग गयी। शेष कविताओं की तुलना में यह इसलिए विशिष्ट थी कि मैंने इसे विद्यालय स्तरीय कविता प्रतियोगिता में भेजने का निश्चय किया था। इसे टंकित करवाकर मैं अपने प्रधानाचार्य से हस्ताक्षरित करवाने भी गया था। अपना संकोच छोड़कर इतना कुछ करना उस समय मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। उन दिनों मैं अपने जीवन के सबसे आदर्शवादी दौर से गुजर रहा था और मन में भावनाएं भी वैसी ही हिलोरें लेती रहती थी। आज वैसा कुछ लिखने का प्रयास भी किया जाए तो स्वयं को ही बनावटी लगने लगे। कविता चुनी नहीं गयी किंतु मैंने इसे सहेज कर रखा और आज इसे स्वयं प्रकाशित करने का साहस भी जुटा रहा हूं बिना कोई बदलाव किए। जीवन के दूसरे दशक के पूर्वाद्ध से चौथे दशक के पूर्वाद्ध तक पहुंचने में अनुभव की एक सुदीर्घ यात्रा है और पीछे मुड़कर स्वयं को देखना अभिभूत भी करता है, कितना भोला था मैं!
.
बाल श्रमिक
.
मैले तन पर फटे वसन
ढुलके मोती हैं आंसू बन
शोषितों की टोली में
बालश्रमिकों का क्रंदन
.
न है अपना नीड़ निकेतन
न स्नेही कोई परिजन
आतंक छिपा है आंखों में
ग्रसित दमित हैं स्वप्न
रोटी दो जून जुटाने को
वयस्क हुआ अबोध बचपन
.
उभरी हड्डी, दुर्बल काया
मंडलाती दरिद्रता का साया
किस्मत की ठोकर के सिवा
कहो अबोध तुमने क्या पाया ?
.
हत आहत अपने हृदय से
लिखी कहां तुमने वह गाथा
पढ़कर जिसको झुक जाए
चाचा नेहरु का भी माथा
.
बालश्रम के अंधकूप से
लौटे बचपन की मुस्कान
कलमबद्ध हों नन्हें हाथ
हो भारत का भविष्य महान।
.
रचना: अजय सिंह रावत (निवर्तमान कवि)
.
वैसे अब भी मुझे यही लगता है कि यह कविता अच्छी ही है और बालश्रम के लिए आज भी प्रासंगिक है। आजकल लोग जिस तरह की कविता करते हैं उन्हें पहले बताना पड़ता है कि वे कविता सुना रहे हैं नहीं तो लगता है कि वे बात कर रहे हैं। लिखी हुई कविताओं को भी गद्य से भिन्न अनुभव करना कठिन है। कई लोग कविता के नाम पर शायरी करने लगते हैं और वहां भी उनका अंदाज़ गुलज़ार जैसा होता है। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मैं इतना आत्मविश्वास रखने का अधिकार तो स्वयं को देता ही हूं कि किसी काव्यरचना को बकवास मान सकूं। रोज एक कविता लिखकर कवि बनने वाले लोगों को कवि मान लेना मेरे लिए संभव नहीं।
0 Comment
Add Comment