कोरोना महामारी के कारणवश थम गए कई सिलसिलों में एक अपनी दर्दभरी कहानी सुनाने का सिलसिला भी है जिसे जापान में परमाणु बम विस्फोट की त्रासदी झेल चुकी साकुए शिमोहिरा कई वर्षों से जारी रखे हुए है। जापान के प्रतिष्ठित समाचार पत्र माइनिचि शिनबुन (Mainichi Shimbun) में हाल ही में प्रकाशित इस रिपोर्ताज का अनुवाद मैंने इसी उद्देश्य से हिन्दी में किया है कि हिन्दी के पाठक भी उनका दर्द साझा करें। जब मैं विद्यार्थी था तो जापान की परमाणु त्रासदी पर अज्ञेय की कविता “हिरोशिमा” पढ़ी थी। इस लेख का अनुवाद करते हुए मन में बरबस वही पंक्तियां कौंध उठी। कहते हैं जाके पैर ना फटी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई। लेकिन दर्द की यह विरासत मात्र जापान की ही नहीं पूरे विश्व की भी धरोहर है। इसलिए आइए दर्द की उस लौ को जलाए रखें जो मानवता का पथ-निदर्शन करती रहे।
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हिरोशिमा / अज्ञेय
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एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।
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छायाएँ मानव-जन की
दिशाहीीन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के:
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।
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कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृष्य सोख लेने वाली एक दोपहरी।
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर।
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मानव का रचा हुया सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।
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https://mainichi.jp/english/articles/20210204/p2a/00m/0na/028000c
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हिबाकुशा: परमाणु बम की कहानी को फिर से सुनाने के लिए उत्सुकता से महामारी के अंत की प्रतीक्षा में…
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नागासाकी – यह एक ऐसा दृश्य है जिसे साकु शिमोहिरा 86 वर्ष की आयु में भी नहीं भूल सकी। नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के एक दशक बाद यह 23 जून 1955 का दिन था। बमबारी से बचने में सफल रही उनके परिवार की एकमात्र अन्य सदस्य, उनकी छोटी बहन, ने ट्रेन के सामने कूदकर जान दे दी। वह सिर्फ 18 वर्ष की थी। जब घटनास्थल पर शिमोहिरा ने अपनी बहन का सिर गोद में रखा, तो उनकी कमीज का आगे का हिस्सा खून से सनकर लाल हो गया।
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शिमोहिरा कहती है, “मेरी बहन ने जीने के बजाय मरने का साहस किया।” भले ही उसने अपनी कहानी कम से कम 10,000 बार बताई हो, लेकिन हर बार जब वह इसका जिक्र करती हैंं, तो उनकी आँखें भर आती हैं और वह अपनी बहन का नाम नहीं ले पाती हैं। फिर भी वह अपनी कहानी साझा करना जारी रखती हैंं। वह कहती हैं “परमाणु बम अपने शिकार जिंदा लोगों के सपनें, आशाएं और जिन्दगियां लूट लेते हैं।”
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शिमोहिरा, जो उस समय मंचूरिया (वर्तमान उत्तरपूर्व चीन) में जन्मी थीं, और उनकी छोटी बहन रियोको को उनके पिता की मृत्यु के बाद उनके संबधियों द्वारा 1940 में पश्चिमी जापान के नगर नागासाकी में लाया गया था। वहाँ उन्होंने नए माता-पिता और भाई-बहनों के साथ एक नया जीवन आरंभ किया।
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9 अगस्त, 1945 को, निवासियों को होने वाली बमबारी की चेतावनी देने वाले सायरन सुबह से ही बजने लगे थे। अपने एक साल के भतीजे को पीठ पर उठाए शिमोहिरा घर खाली कर एक बमबचाव आश्रय में चली गयी। जब सायरन बंद हो गये और वह आश्रय छोड़ने के लिए बाहर निकली, तो उन्हें उनके बड़े भाई, जो उस समय आज के नागासाकी विश्वविद्यालय के मेडिकल स्कूल के छात्र थे, की वह बात याद दिलायी गई जो उन्होंने उनसे पिछली रात कही थी।
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उन्होंने कहा, “हिरोशिमा पर गिराया गया नया बम हवाई हमले के सायरन बंद होने के बाद गिरा था। (जब ऐसा होता है तो) आपको बमबचाव आश्रय नहीं छोड़ना चाहिए।” अगर उनके भाई ने यह बात नहीं कही होती तो शिमोहिरा जिंदा नहीं बच पाती।
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सुबह 11:02 बजे, आंखों को बींधने वाली एक तेज चमक के बाद, शिमोहिरा हवा के एक विस्फोट से चट्टान से टकराकर अपने होश खो बैठी। जब वह आश्रयस्थल पर वापस आई, तो वह धरती के नरक में बदल चुका था। फूले, जले हुए लोग और वे जिनकी आंखों और अन्दरूनी अंगों को बम ने उड़ा दिया था, पूरी तरह बोलने में असमर्थ होकर कराह रहे थे।
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जब शिमोहिरा जले हुए खंडहरों से गुज़रकर अपने घर पहुँची, तो बम के अवकेन्द्र से 300 मीटर की दूरी पर उन्हें मलबे के नीचे जल कर काली हुई अपनी माँ और बड़ी बहन मिली। उनकी ओर भागकर उन्होंने पुकारा, “माँ!”। लेकिन जैसे ही शिमोहिरा ने अपनी मां को छुआ, वे चूर-चूर हो गई। कई दिनों बाद उनके बड़े भाई की भी मृत्यु हो गई। उनके अंतिम शब्द थे, “मैं मरना नहीं चाहता। मैं एक सम्मानित डॉक्टर बनना चाहता हूं।”
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युद्ध की समाप्ति के बाद शिमोहिरा बेसहारा थी। शिमोहिरा और उनके पड़ोसियों ने एक कामचलाऊ घर बनाया और 15-तातामी-चटाई जितनी जगह में पांच गृहस्थियां एक साथ सट कर रहने लगीं । उनका भोजन चुनकर लायी घास और अभिग्रहण सैन्यकर्मियों द्वारा फेंके गए डिब्बाबंद भोजन से जुटता था।
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शिमोहिरा कहती है “मैं खुद को दयनीय नहीं मानती थी। मुझे जिंदा रहने के लिए यह करना पड़ा।”
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लेकिन उनकी बहन, रियोको, धीरे-धीरे जीने की इच्छाशक्ति खोने लगी। परमाणु बम के संपर्क में आने के कारण हुए उसके पेट के घाव नहीं भरे और उसके सड़ते मांस पर कीड़े पड़ गए, जिससे उसे स्कूल में तंग किया जाने लगा। शिमोहिरा और उसकी बहन के पास चिकित्सक के लिए पैसे नहीं थे।
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“इससे तो मर जाना बेहतर है। चलो वहीं चलें जहाँ माँ है,” शिमोहिरा की बहन ने कहा। शिमोहिरा ने अपनी बहन को हिम्मत बंधाने का प्रयास किया। उन्होंने उसे कहा, “हम बमबारी से जिंदा बचे हैं, इसलिए हमें अपने जीवन को अच्छे से जीना होगा।” लेकिन शिमोहिरा के शब्दों का उस पर कोई असर न हुआ।
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अपनी बहन को खोने के बाद जब खुद शिमोहिरा उसी ट्रेन की पटरियों पर खड़ी थी, तब उनके बचपन के दोस्त ताकातोशी ने उन्हें अपनी बहन की नियति को चुनने से रोक दिया। उनके नजदीकी लोगों को आपत्ति थी कि ऐसे दंपति जिसमें दोनों पक्ष हिबाकुशा हैं अर्थात् परमाणु बम से बचे हैं, भविष्य में कई कठिनाइयों का सामना करेंगे। लेकिन इसकी परवाह न करते हुए दोनों ने 1955 के अंत में विवाह कर लिया। उन्हें एक बेटे और दो बेटियों के मां-बाप बनने का सौभाग्य मिला। लेकिन तीस वर्ष की होने से पहले ही ट्यूमर के कारण शिमोहिरा को अपना गर्भाशय और अंडाशय निकलवाने पड़े और ताकातोशी को हाथों में संवेदनशून्यता और कंपकंपाहट की तकलीफ होने लगी।
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“हिबाकुशा को हमेशा ऐसी बीमारियाँ होती हैं जो समझ से परे होती हैं,” लोग उन्हें सुनाते हुए कहते।
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हिबाकुशा के प्रति भेदभाव की जड़ें गहरी थींं। जब वह जूनियर कॉलेज की छात्रा थींं तब वे एक निजी जांच एजेंसी में टंकक (टाइपिस्ट) के रूप में अंशकालिक कार्य करती थी। तब कई ग्राहक यह पता लगाने का प्रयास करते थे कि उनके होने वाले मंगेतर हिबाकुशा थे या नहीं। विवाह करने के कई वादे तब टूट गए जब लोगों को पता चला कि दूसरी पार्टी हिबाकुशा थी। उनके अपने बच्चे भी उसी भेदभाव को झेल सकते हैं इस संभावना के प्रति शिमोहिरा की चिंता और आक्रोश ने उन्हें हिबाकुशा आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।
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कम से कम एक वर्ष ऐसा था जब वह अपनी कहानी सुनाने के लिए 300 से अधिक बार मंच पर खड़ी थीं, और जल्द ही उन लोगों की दुनिया में वह एक प्रतीकात्मक व्यक्ति बन गई जो नागासाकी परमाणु बम के अपने अनुभवों के बारे में बोलते हैं। अगस्त 1981 में नागासाकी शांति समारोह में हिबाकुशा के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने शांति के लिए शपथ पढ़ी। 1982 में निरस्त्रीकरण पर संयुक्त राष्ट्र के दूसरे विशेष सत्र से आरंभ करके उन्होंने कई अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में भाग लिया, जिसमें 2015 का परमाणु अप्रसार संधि में शामिल दलों का समीक्षा सम्मेलन भी शामिल है जिसने “अब और हिबाकुशा नहीं” की मांग उठाई।
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शिमोहिरा की अपने अनुभवों के बारे में बात करने की प्रेरणा जरा भी कम नहीं हुई है। नयी कोरोनावायरस महामारी के कारण, वह दिसंबर 2020 से मंच पर नहीं हैं, लेकिन वह उस दिन की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही हैं जिस दिन महामारी पर काबू पा लिया जाएगा।
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वह कहती हैं, “मेरे परिजन और मित्र मेरे सपनों में आते हैं और मुझसे कहते हैं कि मैं उनसे तब तक नहीं मिल सकती जब तक कि हम परमाणु हथियारों से छुटकारा नहीं पा लेते। इसलिए मुझे मरते दम तक बातचीत जारी रखनी होगी।”
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