शास्‍त्रीय नृत्‍य की दीक्षांत प्रस्‍तुत‍ि: अरंगेट्रम्

Ajay Singh Rawat/ June 26, 2022

Arangetram
.

प‍िछले द‍िनों एक समाचार ज‍िसने सुर्ख‍ियां बटोरी वह था अंबानी पर‍िवार की भावी पुत्रवधू राध‍िका का अरंगेट्रम् समारोह। समाचार अध‍िकतर समारोह में कौन कौन सी हस्‍त‍ियां पधारीं और क‍िसने क्‍या पोशाक पहनी की चर्चा तक ही स‍िमटा रहा। जबक‍ि अरंगेट्रम् के व‍िषय में बहुत कुछ जानने योग्य है।
.

अरंगेट्रम् चमक दमक की दुन‍िया से परे शास्‍त्रीय नृत्‍य साधक के जीवन की एक महत्‍वपूर्ण घटना है। वर्षों के कठ‍िन पर‍िश्रम के पश्‍चात जब एक नृत्‍य साधक मंच पर अपनी प्रथम प्रस्‍तुत‍ि देता है तो उसे अरंगेट्रम् कहते हैं। यह एक तम‍िळ शब्‍द है जो अंरग अर्थात् नृत्‍य मंच और एट्रम् अर्थात् आरोहण से म‍िलकर बना है। इस प्रकार अरंगेट्रम् का शाब्‍द‍िक अर्थ हुआ नर्तक का प्रथम मंचारोहण। कन्‍नड़ा में इसे रंगप्रवेश कहते हैं जो क‍ि व‍िशुद्ध संस्‍कृत शब्‍द है। अरंगेट्रम् शब्‍द का उल्‍लेख तीसरी शताब्‍दी में राजकुमार इलंगो अड‍िगल द्वारा रच‍ित श्रेण्‍य कृत‍ि स‍िलप्‍पद‍िकारम में म‍िलता है। इसके तीसरे अध्‍याय अरंगेट्रकादै में कव‍ि ने द्वादश वर्षीय नृत्‍यांगना माधवी के अरंगेट्रम् का जीवंत वर्णन क‍िया है।
.

चोल साम्राज्य की राजधानी पूंपूहार में चोल सम्राट कर‍िकालन की सभा में माधवी ने अपनी प्रथम नृत्‍य प्रस्‍तुत‍ि दी थी। अगस्‍त्‍य मुन‍ि के शापवश अप्‍सरा उर्वशी और इन्‍द्र के पुत्र जयन्‍त का जन्‍म क्रमश: नृत्‍यांगना माधवी और तालैक्‍कोल के रूप में हुआ। तालैक्‍कोल वास्‍तव में बांस की पव‍ित्र छड़ी होती है ज‍िससे नृत्‍यगुरु नृत्‍य को न‍ियंत्र‍ित करता है। तालैक्‍कोल युद्ध में शत्रु राजा से छीने गए राजछत्र का दंड होता है। माधवी के नृत्‍य पर मुग्ध होकर राजा ने उसे हरे पत्‍तों की माला 1008 स्‍वर्ण मुद्राएं और तालैक्‍कोली अर्थात् मुख्‍य नर्तक‍ी की उपाध‍ि दी थी।
.

अरंगेट्रम् के नौ अंग होते हैं जो इस प्रकार हैं:
.

पुष्‍पांजल‍ि
.

अरंगेट्रम् की प्रारंभ‍ि‍क प्रस्‍तुत‍ि पुष्‍पांजल‍ि कहलाती है ज‍िसमें नर्तक ईश्‍वर गुरु और दर्शकों को नमन करता है। यह एक प्रकार का ऊष्‍मीकरण अभ्‍यास (वार्म अप) है ज‍िसे नर्तक दीर्घ प्रस्‍तुत‍ि के ल‍िए अपने शरीर को तैयार करने के ल‍िए करता है। इसमें ताल के अनुरूप क‍िया जाने वाला व‍िशुद्ध चरण (स्‍टेप) होता है। धीरे धीरे नर्तक के शरीर की गत‍ि बढ़ती है और जट‍िल चरण प्रस्‍तुत कि‍या जाता है।
.

जत‍िस्‍वरम्
.

यह अरंगेट्रम् का दूसरा और सर्वाध‍िक उत्‍साहजनक अंग है। इसमें नर्तक धीरे धीरे नृत्‍य की गत‍ि बढ़ाता है और कई जट‍िल क‍िंतु मोहक मुद्राएं और तीरमान या मुक्‍ताय प्रस्‍तुत करता है। इस प्रस्‍तुत‍ि में मधुर राग का समावेश भी होता है जो दर्शकों को सम्‍मोह‍ित कर देता है। यह भरतनाट्यम् की आगामी जट‍िल और रुच‍िकर प्रस्‍तुत‍ि का आरंभ मात्र है।
.

शब्‍दम्
.

अरंगेट्रम् के इस अंग में नृत्‍य और अभ‍िनय दोनों होते हैं। इसमें दर्शकों को नृत्‍य की कुछ प्रवाहमान गत‍ियों और कुशल अभ‍िनय का सम्‍मि‍श्रण देखने को म‍िलता है। सामान्‍यत: गीत की व‍िषयवस्‍तु श्रीकृष्‍ण के जीवन से जुड़ी होती हैं जैसे क‍ि बाल्‍यावस्‍था का नटखटपन, युवावस्‍था की रासलीला अथवा कोई भी भक्‍त‍िकथा आद‍ि । शब्‍दम् में प्रारंभ में भावनाओं को रोक कर रखा जाता है। किंतु जब नर्तक अपना अभ‍िप्राय स्‍पष्‍ट कर देता है तब वह अपना अनुशासन और संतुल‍ित अभ‍िव्‍यक्‍त‍ि प्रदर्श‍ित करता है। अनुशासन पर पकड़ बनाए रखते हुए नर्तक अगले भाग में प्रवेश करता है।
.

वर्णम्
.

वर्णम् में नर्तक को नृत्‍य और अभ‍िनय दोनों की कसौटी पर परखा जाता है। यह नर्तक की नृत्‍य और अभ‍िनय को एक ही प्रवाह में प्रस्‍तुत करने की क्षमता की परीक्षा है। अरंगेट्रम् के इस भाग में नृत्‍य के कई जट‍िल चरण और भाव भंग‍िमाएं होती हैं। यों तो इसकी व‍िषयवस्‍तु मुख्‍यत: भक्‍त‍ि से जुड़ी ही होती है क‍िंतु इसमें श्रंगाररस को भी व‍ि‍षय बनाया जा सकता है।
.

पदम्
.

इस भाग में नर्तक द‍िव्‍य प्रेम के भाव और व‍िरह की तीव्र वेदना का च‍ित्रण करता है। प्रेम की पर‍िपक्‍व भावनाओं को प्रकट करने के ल‍िए नृत्‍य की गत‍ि धीमी हो जाती है। पदम् एक चलच‍ित्र की भांत‍ि होता है ज‍िसमें कई चर‍ित्र उपस्‍थ‍ित होते हैं, प्रेमी अथवा भगवान के रूप में नायक और व‍िरहाकुल आत्‍मा के रूप में नाय‍िका। पदम् में नर्तक द्वारा अपने प्रेम प्रसंग की बात अपनी सख‍ियों को बताते हुए नायि‍का, नाय‍िका से छल करते हुए नायक और नायि‍का से क्षमायाचना करते हुए नायक जैसे व‍िव‍िध दृश्‍यों को प्रस्‍तुत क‍िया जाता है।
.

अष्‍टपदी
.

यह संस्‍कृत के कव‍ि जयदेव की प्रेमपूर्ण और आत्‍मीय रचना गीतगोव‍िंद की प्रस्‍तुत‍ि है। इन रचनाओं में भगवान कृष्‍ण और उनकी बालसखी राधा के पव‍ित्र प्रेम का वर्णन होता है। प्रत्‍येक सर्ग या तो राधा अथवा उनकी दासी का गाया हुआ है और 12 सर्गों में श्रीकृष्‍ण की व‍िभ‍िन्‍न मनोदशाओं का वर्णन है। प्रत्‍येक सर्ग को भ‍िन्‍न नाम द‍िया गया है जैसे क‍ि सामोद दामोदर, अक्‍लेशकेशव. मुग्ध मधुसूदन, स्‍न‍िग्ध मधुसूदन, साकांक्षपुण्‍डरीकाक्ष, कुण्ठबैकुण्ठ, नागरनारायण, विलक्ष्यलक्ष्मीपति, मन्‍दमुकुन्‍द, चतुरचतुर्भुज, सानन्‍ददामोदर, सुप्रीतपीताम्‍बर।

.
देवरणम्
.

देवरणम से अभ‍िप्राय ईश्‍वर की स्‍तुत‍ि में रचे भक्‍त‍िगीतों से है । इसमें मुख्‍यत: अभ‍िनय का ही समावेश होता है। इसमें नृत्‍य नहीं द‍िखाई देता। इसमें भरतनाट्यम् की महान रहस्‍यवादी रचनाओं का संकलन होता है जैसे क‍ि पुरन्‍दरदास, व्‍यासराज आद‍ि की रचनाएं। भरतनाटयम् रचनाएं संकल‍ित रूप में दास साह‍ित्‍य कहलाती हैं। इसमें सुबोध भाषा में भक्‍त‍ि साह‍ित्‍य होता है। इसमें जीवन और प्रेम के व‍िव‍िध दर्शनों का वर्णन होता है।
.

त‍िल्‍लाना
.

यह भरतनाट्यम् प्रस्‍तुत‍ि का अंत‍िम भाग होता है। यह भाग कई जट‍िल गत‍ियों और मुद्राओं से युक्‍त होता है। यह एक प्रकार से संपूर्ण प्रस्‍तुत‍ि की अंत‍िम झलक होती है ज‍िसमें व‍िभ‍िन्‍न मुक्‍तायों को प्रस्‍तुत‍ि के अंत में रचा जाता है। इस नृत्‍य में कई चरणों अभ‍िनयों और सार्थक गीतों को संकुच‍ित करके प्रस्‍तुत क‍िया जाता है। यह अरंगेट्रम् नर्तक द्वारा संपूर्ण भरतनाट्यम् प्रस्‍तुत‍ि का सबसे मनोहारी अंश होता है।
.

मंगला
.

यह अरंगेट्रम् समारोह का अंत‍िम भाग होता है जहां नर्तक अपने गुरु, दर्शकों और ईश्‍वर के प्रत‍ि आदर प्रकट करता है। वह दर्शकों को धन्‍यवाद देता है। वास्‍तव में अरंगेट्रम् अपने गुरु और दर्शकों के प्रत‍ि कृतज्ञता प्रकट करने का एक तरीका ही है।
.

भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य शैल‍ियों में भरतनाट्यम् प्राचीनतम है। यह भरतमुनि‍ के नाट्यशास्‍त्र पर आधार‍ित है। भरतनाट्यम् की प्रस्‍तुत‍ि एक ह‍िन्‍दू मन्‍द‍िर की संरचना को साकार करती है।
.

इस नृत्‍य का आरंभ अलरि‍प्‍प से होता है जो क‍ि मंद‍िर के गोपुरम् अर्थात् बाहरी प्रवेश द्वार की भांत‍ि होता है। फ‍िर यह जत‍िस्‍वरम् में पर‍िणत होता है जो क‍ि मंद‍िर के अर्धमण्‍डपम् जैसा होता है। उसके बाद इस नृत्‍य की पर‍िणत‍ि शब्‍दम् में होती है जो क‍ि मण्‍डपम् जैसा होता है और अंतत: यह नृत्‍य वर्णम् तक पंहुचता है जो क‍ि मंद‍िर के गर्भगृह की भांत‍ि होता है।
.

भरतनाट्यम् और मंद‍िर का संबंध अटूट है। यह नृत्‍य शैली दक्ष‍िण भारत के ह‍िंदू मंद‍िरों में राजाओं के प्रश्रय और देवदास‍ियों की प्रत‍िभा से ही फली फूली है।