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आमतौर पर गैरतमिळ अपने तमिळ भाषा के अज्ञान के कारण तमिळों के निशाने पर रहते हैं। किंतु इस बार कुछ विपरीत हूआ है। अज्ञान की भांति अतिज्ञान भी कभी कभी विवाद उत्पन्न कर देता है। यह प्रसंग इसी बात का एक अच्छा उदाहरण है। तमिळनाड में पोंगल के हर्षोल्लास के वातावरण में एक शासकीय निमन्त्रण ने कड़वाहट घोल दी है। पोंगल के अवसर पर जारी इस शासकीय निमन्त्रण में तमिळनाड के राज्यपाल रवीन्द्रनारायण रवि ने सोद्देश्य कुछ शाब्दिक फेरबदल कर दिए जिससे राज्य सरकार की भौंहे तन गयीं और प्रदेश भर में “गेटआऊट रवि” का कोलाहल मच गया है।
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अपने शासकीय निमन्त्रण में रवि ने स्वयं को तमिळनाड के स्थान पर तमिळगम का राज्यपाल (तमिळगम आलनार) संबोधित किया। “तमिळनाड” द्रविड़ मुन्नेट्र कड़गम के संस्थापक अन्नादुरै द्वारा गढा गया नाम है जिसका शाब्दिक अर्थ है तमिळदेश जबकि तमिळगम का शाब्दिक अर्थ है तमिळभूमि। रवि की दृष्टि में तमिळनाड या तमिळदेश विभाजनकारी अवधारणा का द्योतक है और तमिळभूमि एक राष्ट्रनिष्ठ समावेशी अवधारणा का। इसके साथ ही उन्होंने तमिळनाड के राज्यप्रतीक, जिसमें श्रीविल्लीपुत्तूर की छवि है, उसके स्थान पर भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ का प्रयोग किया। अपने लिए तैयार किए गए भाषण के भी कुछ अंशों को उन्होंने छोड़ दिया। उन्होंने सत्तारूढ द्रविड़ मुन्नेट्र कड़गम द्वारा केन्द्र सरकार के लिए प्रयोग में लिए जाने वाले शब्द “ओन्ड्रिय अरस” पर भी आपत्ति जताई। तात्पर्य यह कि उन्होंने प्रच्छन्न तमिळ राष्ट्रवाद को सांकेतिक रूप से ठुकराने का प्रयास किया।
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द्रविड़ मुन्नेट्र कड़गम ने 1960 में अलग राज्य की अपनी मांग छोड़ दी थी आपातकाल के दौरान अलगाववादी राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध के कारण द्रविड़ मुन्नेट्र कड़गम छोड़कर नया राजनीतिक दल अन्नाद्रमुक बनाने वाले एमजीआर ने भी आलोचना से बचने के लिए अपने राजनीतिक दल के आगे अखिल भारतीय (ऑल इंडिया) जोड़ लिया।
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साहित्यिक अर्थों और व्यावहारिक उपयोग में तमिळ शब्द नाड/नाडु किसी देश मात्र तक सीमित नहीं है। यह स्थानीय शासनतंत्र वाली जगहों और पंचायती राज वाले ग्रामों के लिए भी प्रयुक्त होता है। तमिळनाड के पर्वतीय जिले तेनी में वरुसनाड पंचायत का एक हिस्सा मात्र है।
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वैसे केरल में जहां रवीन्द्र नारायण प्राशासनिक अधिकारी रह चुके हैं वहां भी उत्तरी वायानाड (वाया-नाड) में अलग जिले वल्लुवनाड की मांग उठी थी जिससे वे अनभिज्ञ नहीं होंगे।
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रवीन्द्र नारायण को आड़े हाथों लेते हुए द्रविड़ मुन्नेट्र कड़गम के मुखपत्र मुरासोली ने लिखा यदि तमिळनाड नाम एक संप्रभु राघ्ट्र की अभिव्यक्ति है तो क्या उन्हें राजस्थान भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसा लगता है? क्या महाराष्ट्र नाम से उन्हें मराठाओं की भूमि का अहसास नहीं होता? केरला पर्यटन के नारे “गाॅड्स ओन कन्ट्री” (दैवतिन्टे स्वान्तम् “नाडम्”) से या राजनीतिक दल तेलुगु “देशम” पार्टी के नाम से उन्हें आपत्ति नहीं है?
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मुरासोली के प्रश्नों से मुझे एक दिलचस्प किस्सा याद हो आया। कुछ वर्ष पूर्व जब मैं रेलयात्रा कर रहा था तो मेरे सहयात्रियों में राजस्थान की ग्रामीण स्त्रियां और मध्यप्रदेश के एक शिक्षित महोदय भी यात्रा कर रहे थे। स्त्रियां समय काटने के लिए राजस्थानी भजन गा रही थीं और वे महोदय चेहरे पर न समझ पाने के भाव के साथ उन्हें देख रहे थे। भजन समाप्त होने पर उन्होंने उनसे उसका अर्थ जानना चाहा तो उन महिलाओं ने जिज्ञासावश उनसे पूछा, “आपका देस कौनसा है?” उन्होंने जवाब दिया “भारत”। उन स्त्रियों के लिए यह उपयुक्त उत्तर नहीं था इसलिए मुझे बताना पड़ा कि राजस्थान में देस का अर्थ प्रदेश भी होता है। मेरे कहने भर की देर थी कि एक वृद्धा ने सहमत होकर तुरंत मुझे मारवाड़ी होने का मौखिक प्रमाण पत्र दे दिया।
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इसलिए केरल की तर्ज पर जब राजस्थानी कहते हैं “पधारो म्हारे देस” तो वे आपको भारत आने का नहीं बल्कि राजस्थान आने का निमन्त्रण दे रहे होते हैं।
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फिलहाल पोंगल के अवसर पर हमें “नाड” को भूलकर “नाट” पर ध्यान देना चाहिए जिसने गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीतकर सभी भारतीयों का शीश अभिमान से ऊंचा किया है।
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